Friday, August 6, 2010

काश मैं लिख पता...

छोटी छोटी चित्रायी यादें
बिछी हुई है लम्हों की लौ पर
नंगे पैर उनपर चलते चलते
इतनी दूर चले आये
कि अब भूल गए है -
जूते कहाँ उतारे थे

एडी कोमल थी, जब आये थे
थोड़ी सी नाजुक है अभी भी
और नाजुक ही रहेगी
इन खट्टी-मीठी यादों कि शरारत
जब तक इनहे गुदगुदाती रहे

सच, भूल गए है
कि जूते कहाँ उतारे थे
पर लगता है,
अब उनकी ज़रुरत नहीं...
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जो लहरों के आगे तुम देख पाते तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ,
वो आवाज़ तुमको जो भिड जाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ,
जिद का तुम्हारा जो पर्दा सरकता तो खिडकियों से आगे भी तुम देख पाते,
आँखों से आदतों की पलकें हटाते तोह तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ.

मेरी तरह खुद पर होता जरा भरोसा तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते,
रंग मेरी आँखों का बनते थे जरा सा तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते,
नशा आसमान का जो चूमता तुम्हे भी, हसरतें तुम्हारी नया जनम पाती,
खुद दुसरे जनम में मेरी उड़ान छूने कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते.

Courtesy - Movie Udaan